Monday, February 20, 2017

सांप्रदायिक कौन : मोदी या मनमोहन ?

रविवार १९ फरवरी २०१७ को उत्तर प्रदेश की एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुये प्रधान मंत्री मोदी ने यह वक्तव्य दिया कि-"धर्म के आधार पर भेदभाव नही होना चाहिये. अगर रमज़ान मे बिजली मिलती है तो दिवाली मे भी बिजली मिलनी चाहिये." देश के सारे के सारे विपक्षी दल पी एम मोदी के इस वक्तव्य को "साम्प्रदायिक" बता रहे हैं और इस हद तक आग बबूला हो गये हैं कि शिकायत लेकर चुनाव आयोग के पास भी पहुंच गये हैं.

पीं एम मोदी के इस वक्तव्य पर और चर्चा करने से पहले आइए हम सन २००६ मे दिये गये तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक बयान पर भी नज़र डाल लेते हैं-" मुस्लिमों और अल्पसंख्यकों का इस देश के संशाधनों पर पहला हक है."

कोई भी साधारण पढ़ा लिखा या समझदार व्यक्ति यह आसानी से बता सकता है कि ऊपर दिये गये दोनो बयानों मे से कौन सा बयान "साम्प्रदायिक" है और कौन सा बयान देश और समाज को भेदभाव से मुक्त रखने की सलाह दे रहा है.

 विपक्षी दलों के साथ दिक्कत यह है कि पिछले ७० सालों से वे लोग जिस तरह से देश और समाज मे भेदभाव, जातिवाद और साम्प्रदायिकता का जहर घोल घोल कर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहे थे, मोदी उन सब को बेनकाब कर रहे हैं और क्योंकि इनकी "वोट बैंक" की राजनीतिक रोटियाँ अब बहुत जल्द ही बंद होने वाली हैं, इन सभी ने अपनी अपनी छाती पीटना और विधवा विलाप करना शुरु कर दिया है.
 यह विपक्षी दल शायद अभी भी देश की जनता को अनपढ, जाहिल और मूर्ख समझने की गलती कर रहे हैं कि यह लोग मोदी और भाजपा के खिलाफ जो कोई भी दुष्प्रचार करेंगे, उसे इस देश की जनता सच समझ कर इनके चंगुल मे एक बार फिर फंस जायेगी. २०१४ के लोकसभा चुनावों मे इस देश की जनता ने यह साबित कर दिया है कि जनता विपक्षी दलों की जाति-पाति और धर्म के आधार पर बांटने वाली ओछी राजनीति से अब ऊब चुकी है. देश के विपक्षी राजनीतिक दल जितनी जल्द यह बात समझ लेंगे, उनकी सेहत के लिये अच्छा होगा


Monday, February 13, 2017

उत्तर प्रदेश में भाजपा की बम्पर जीत के संकेत

विधान सभा चुनावों से पहले ही यह माना जा रहा था कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में सेना द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के चलते काले धन और जाली धन पर की गयी अभूतपूर्व सर्जिकल स्ट्राइक इन चुनावों में मुख्य मुद्दा बनेंगे, जिस बात का किसी को भी अंदाजा नहीं था, वह यह थी कि विपक्षी राजनीतिक दल इन दोनों ही ऐतिहासिक और जनहित में लिए गए फैसलों का अपनी पूरी ताकत लगाकर विरोध करेंगे. विपक्षी दलों को इन दोनों ही फैसलों से इतना बड़ा धक्का लगा, मानो वे लोग चुनाव शुरू होने से पहले ही चुनाव हार गए हों. इसकी वजह सिर्फ यह थी कि जनता को यह समझ में आ गया कि जो क्रांतिकारी काम पिछली सरकारें ६७ सालों में नहीं कर सकीं, उन्हें मोदी सरकार ने अपनी मजबूत इच्छा शक्ति के बल पर ढाई साल में ही कर दिखाया है. विपक्षी दल इस बात से पूरी तरह वाकिफ थे कि विधान सभा चुनावों को वे पूरी तरह से शुरू होने से पहले ही हार चुके है. सबसे ज्यादा डर उत्तर प्रदेश में सत्ता पर काबिज़ समाजवादी पार्टी को था, लिहाज़ा इस पार्टी  ने सर्जिकल स्ट्राइक के तुरंत बाद से एक लिखी हुईं स्क्रिप्ट पर काम करना शुरू कर दिया, जिसे देखकर जनता  और मीडिया दोनों ही पिछले पांच सालों के जंगल राज को भूल जाएँ और यह समझ बैठें कि अखिलेश यादव तो “बहुत ही बढ़िया राजनेता” हैं, उन्हें उनके पिताजी "बढ़िया" बनने से रोक रहे थे.

दिक्कत यह है कि लोग आजकल पढ़े लिखे और समझदार है और सोशल मीडिया ने उन्हें पूरी तरह सजग कर दिया है. लोग समाजवादी पार्टी द्वारा पेश किये गए इस "मुलायम-अखिलेश" ड्रामा के मन्तव्य को तभी समझ गए थे, जब यह शुरू हुआ था. चुनावों की घोषणा होने के बाद समाजवादी पार्टी को यह लगने लगा कि लोग उसके ड्रामे को समझ गए हैं और उसकी लुटिया डूबनी लगभग तय है. अब इस पार्टी ने मजबूरी में अपना आखिरी दांव चल दिया और जिस कांग्रेस पार्टी का यह कल तक विरोध कर रहे थे, उसके साथ गठबंधन कर लिया. कांग्रेस पार्टी के लिए तो यह मौका "डूबते को तिनके का सहारा "  की तरह आया और उसने बिना किसी सोच विचार के इस मौके को लपक लिया.

देखा जाए तो कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी तो पहले से ही अपने आप को "हारा हुआ खिलाड़ी" समझ रहे थे, कांग्रेस को लगा क़ि समाजवादी पार्टी से गठबंधन करने से उसे कुछ खोना नहीं है क्योंकि उसके पास कुछ भी खोने के लिए नहीं है. हाँ , लोग अगर गलती से भी समाजवादी ड्रामे की चाल में फंस गए तो उसे फायदा जरूर हो सकता है.

२०१४ के लोकसभा चुनावों में जीरो पर आउट हुईं बहुजन समाज पार्टी तो पहले से ही हाशिये पर थी . रही सही कसर उस खुलासे ने कर दी जिससे यह सामने आया कि नोटबंदी की अवधि में बैंकों में पुराने नोटों  को सबसे अधिक मात्रा में जमा कराने वाली वह इकलौती पार्टी है. बाकी पार्टियों ने भी पुराने नोटों को बैंक में जमा कराया लेकिन जितनी भारी भरकम मात्रा में पुराने नोट बसपा ने जमा कराये, उसे देखकर जनता खुद ही समझ गयी कि आखिर यह विपक्षी दाल नोटबंदी का इतनी तेजी के साथ विरोध क्यों कर रहे थे. इतना तो जनता समझ ही चुकी है कि जो राजनीतिक दाल जितनी ताकत लगाकर नोटबंदी का विरोध कर रहा है, वह राजनीतिक दल या नेता उतनी ही बुरी तरह नोटबंदी से प्रभावित हुआ है.

गौरतलब बात यह है कि पाक अधिकृत कश्मीर में की गयी सर्जिकल स्ट्राइक हो या फिर काले धन और जाली धन पर कि गयी सर्जिकल स्ट्राइक, मोदी सरकार ने देश में पहली बार एक जबरदस्त "मास्टर स्ट्रोक" खेला है, जिससे समूचा विपक्ष चरों खाने चित हो गया है और दोनों ही क़दमों की तीखी आलोचना कर रहा है. अगर यह दोनों फैसले घटिया है, जनहित और देशहित में नहीं हैं, फिर उसका अंजाम तो भाजपा के खिलाफ ही जाने वाला है. भाजपा के खिलाफ जाने वाले फैसलों का तो विपक्षी नेताओं को मन ही मन स्वागत करना चाहिए. लेकिन भाजपा के साथ साथ पूरा विपक्ष यह जानता है कि यह दोनों फैसले ऐसे हैं जो पिछले ६७ सालों में कोई भी सरकार नहीं ले सकी और क्योंकि यह फैसले ऐतिहासिक एवं  अभूतपूर्व हैं और देशहित एवं जनहित में हैं, मोदी सरकार को इनका फायदा लेने से कोई नहीं रोक सकता.

लगभग सभी विपक्षी नेता और राजनीतिक दल मन ही मन इस बात पर एकमत हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की बम्पर जीत को कोई नहीं रोक सकता लेकिन इसी कड़वे सच को खुलकर मानने के लिए तैयार नहीं हैं. अब सभी विपक्षी नेताओं की उम्मीद इसी बात पर टिकी हुयी है कि वे जाति-धर्म और साम्प्रदायिकता की राजनीती को अंजाम देने और जनता को दिग्भ्रमित करने में कितने कामयाब होते हैं. जिस तरह से सभी पार्टियां अल्पसंख्यक वर्ग के मतदाताओं को भाजपा से डरा कर  अपनी तरफ करने में लगी हुयी हैं, उससे यह सवाल भी खड़ा हो रहा  है कि जो मीडिया भाजपा को सांप्रदायिक कहने में एक मिनट नहीं लगाता वह मुस्लिमों को भाजपा से डराने वालों को कब "सांप्रदायिक" कहना शुरू करेगा ?



Friday, February 3, 2017

गाज़ियाबाद वोटर लिस्ट से लाखों नाम गायब !

देश की राजधानी दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद  क्षेत्र में विधान सभा की सभी सीटों के लिए लगभग सभी राजनीतिक दलों के प्रत्याशी अपना अपना भाग्य आजमा रहे हैं. इस हाइ प्रोफाइल इलाके  मे जहां कांटे का मुकाबला होने की संभावना जताई जा रही है,वहीं दूसरी तरफ  यहाँ के लाखों निवासियों की शिकायतें भी आ रही है कि उनके नाम अभी तक वोटर लिस्ट मे शामिल नही किये गये है !

जिन इलाकों के निवासियों की ज्यादा शिकायतें आ रही है, उनमे इंदिरापुरम,वैशाली और वसुंधरा जैसे क्षेत्र मुख्य रूप से शामिल है-यहाँ पर चुनाव प्रक्रिया से जुड़े सरकारी कर्मचारियों ने लगभग 1 साल पहले बहुमंजिला इमारतों मे रहने वाले निवासियों की सोसाइटी कॉम्प्लेक्स मे जाकर फार्म 6 एकत्रित किये थे ! काफी लोगों ने यहाँ ऑनलाइन आवेदन भी किया है ! लेकिन हालत इतनी ज्यादा बदतर है कि लाखों नाम अभी तक वोटर लिस्ट मे शामिल नही किये गये है जबकि यहाँ ११ फरवरी  को वोट डाले जाने हैं ! जो निवासी ऑनलाइन शिकायत भी दर्ज़ करा रहे है उन्हे गोल मोल जबाब देकर चलता किया जा रहा है और इस बात की उम्मीद कम ही है की ये लाखों लोग ११ फरवरी  को होने वाले चुनावों मे अपना वोट डाल पायेंगे ! हैरानी की बात तो यह भी है कि सोसाइटी काम्पलेक्स मे आये अधिकारियों को जिन निवासियों ने अपने परिवार के कई सदस्यों के फार्म 6 जमा कराये थे, उनमे से कुछ के नाम मतदाता सूची मे दर्ज़ हैं और कुछ के नही !

गाज़ियाबाद RWA फेडरेशन ने भी इस विषय मे सम्बंधित अधिकारियों को इस बाबत लिखकर इस बात की आशंका जताई है कि इतनी भारी संख्या मे जागरूक मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट मे शामिल ना किया जाना एक राजनीतिक साज़िश भी हो सकती है ! उम्मीद यह की जाती है कि मुख्य चुनाव आयुक्त कार्यालय इस मामले मे तुरंत दखल देकर सभी मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट मे शामिल करवाने की दिशा मे कोई ठोस कदम उठायेगा !

सभी राजनीतिक दल आजकल गाज़ियाबाद मे जोर शोर से प्रचार मे लग गये है- जब तक मतदाताओं के नाम ही मतदाता सूची मे ना शामिल हों, इस प्रचार का कोई मतलब नही है ! कौन किसे वोट देगा, इस बारे मे लोग अपना मन बना चुके हैं-अब वक्त इस बात का है कि सभी राजनीतिक दल,बेमतलब के इस चुनाव प्रचार को रोककर पहले यह सुनिश्चित करें कि जिनसे वे वोट मांग रहे हैं, वे वोट दे भी पायेंगे या नही !

देश की राजधानी दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद की हालत अगर यह है तो देश के बाकी स्थानों पर हालत इससे बेहतर होगी, इसकी उम्मीद कम ही है !

नियमों के अनुसार वोट डालने के लिये सिर्फ वोटर कार्ड होना ही काफी नही है-मतदाता को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि उसका नाम वोटर लिस्ट में शामिल भी है या नही क्योंकि काफी मतदाता ऐसे भी हैं जिन्हे वोटर कार्ड तो मिल चुका है लेकिन उनका नाम वोटर लिस्ट मे नही है !

गौर देने लायक बात यह है कि इस समस्या कि तरफ मैंने २०१४ के लोकसभा चुनावों से पहले भी सभी सम्बंधित अधिकारियों और चुनाव आयोग का ध्यान आकर्षित किया था लेकिन सरकारी निकम्मापन इस हद तक फैला हुआ है कि आज तीन सालों के बाद भी हालात जस के तस हैं और जिन लोगों को मतदाताओं को पहचान पत्र जारी तीन साल पहले ही जारी कर देने चाहिए थे, वे आज भी वोटर कार्ड का इंतज़ार कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में जंगल राज के यह हालात कब सुधरेंगे, इस पर कोई भी टिप्पणी करना आज पूरी तरह फ़िज़ूल की  बात लगती है.
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