Thursday, March 30, 2017

कैसी कैसी चाल- चले केजरीवाल !!!

"जिस राज्य की प्रजा लोभी और लालची होती है, वहां ठग शासन करते हैं.” चाणक्य ने जब यह बात अपनी चाणक्य नीति में लिखी थी, उस समय शायद उन्हें भी नहीं मालूम था कि कभी दिल्ली जैसे राज्य में उनकी लिखी गयी नीति को पूरी सच्चाई के साथ अमल में लाया जाएगा. जब से दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बनी है, लोग अपने मुफ्त के वाई-फाई, मुफ्त के पानी और सस्ती बिजली के लालच में अपना वोट एक ऐसी पार्टी को देने पर लगातार अपना सर पीट रहे हैं, जिसे न सरकार चलाना आता है और न ही सरकार चलाने कि कोई मंशा नज़र आती है. नतीजतन दिल्ली में पिछले लगभग दो ढाई सालों से जो कुछ भी हो रहा है, वह सब भगवान् भरोसे चल रहा है. अगर कुछ अच्छा हो जाए तो दिल्ली सरकार उसका श्रेय अपनी सरकार को दे देती है और जो कुछ भी ख़राब हो जाए या न हो पाए, उसके लिए वह सीधे सीधे मोदी सरकार को जिम्मेदार बताकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती है.
दिल्ली में विधान सभा चुनावों से पहले केजरीवाल ने जनता से यह वादा किया था कि दिल्ली कि बिजली कंपनियां गड़बड़ कर रही हैं और उनका सी ऐ जी ऑडिट कराया जाएगा और उस ऑडिट के बाद से दिल्ली में बिजली अपने आप ही सस्ती हो जाएगी. जिस समय केजरीवाल ने यह वादा किया था, उस समय भी उन्हें यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि दिल्ली की बिजली कम्पनियाँ प्राइवेट कम्पनियाँ हैं और उनका सी ऐ जी ऑडिट कानूनन संभव नहीं है. बाद में क्या हुआ, यह सभी को मालूम है – सी ऐ जी ऑडिट के खिलाफ प्राइवेट बिजली कम्पनियाँ अदालत चली गयीं और अदालत ने कानून का पालन करते हुए सी ऐ जी ऑडिट पर रोक लगा दी. केजरीवाल सरकार ने शर्मा शर्मी अपनी इस हार पर पर्दा डालने के लिए “सब्सिडी” के रास्ते से बिजली के बिलों में कुछ राहत देने की नौटंकी को अंजाम दिया . यह सभी जानते हैं कि “सब्सिडी” का मतलब यह होता है कि आप की एक जेब से पैसा निकालकर उसी पैसे को आपकी दूसरी जेब में डाल दिया जाए.
पिछले दो ढाई साल के शासन काल में केजरीवाल की सरकार और इसके नेता इतने विवादों में पकडे जा चुके हैं, जिनकी गिनती भी करना अपने आप में एक बड़ा काम है. अभी हाल ही में दिल्ली के उप राज्यपाल ने केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से विज्ञापन घोटाले में ९७ करोड़ रुपये वसूलने का आदेश दिल्ली के मुख्य सचिव को दिया है. बाकी के कारनामे रोजाना अख़बारों की सुर्खियां बनते ही रहते हैं.
केजरीवाल के इन्ही कारनामों के चलते हालिया विधान सभा चुनावों में गोवा में इन्हें ४० में से ३९ सीटों पर अपनी जमानत जब्त करानी पडी और पंजाब में भी लगभग २ दर्जन सीटों पर इनके नेताओं कि जमानत जब्त कर ली गयी. लेकिन इन सब बातों से कोई भी सबक न लेते हुए केजरीवाल ने दिल्ली नगर निगम चुनावों से ठीक पहले जनता को एक बार फिर से अपनी चाल में फंसाने की नाकाम कोशिश की है. इस बार जनता को यह लालच दिया जा रहा है कि अगर यह नगर निगम चुनावों में जीत गए तो दिल्ली में हाउस टैक्स को पूरी तरह ख़त्म कर देंगे. दिल्ली नगर निगम कानून, १९५७ के अन्तर्गत हाउस टैक्स को केवल कानून में संशोधन लाकर ही ख़त्म किया जा सकता है और कानून में संसोधन सिर्फ संसद की सहमति से ही किया जा सकता है. इनकी पार्टी के शिक्षा मंत्री इस बात को बार बार कह रहे हैं कि नहीं हम तो कानून में संसोधन के बिना ही हाउस टैक्स ख़त्म कर देंगे. लेकिन यह सबको मालूम है कि जब संसद में इस तरह का कोई संसोधन मंजूर नहीं होगा तो केजरीवाल मोदी सरकार पर यह आरोप लगाकर एक तरफ हो जाएंगे कि, “उनकी सरकार तो हाउस टैक्स ख़त्म करना चाहती है, वह तो मोदी जी उन्हें हाउस टैक्स ख़त्म नहीं करने दे रहे”.
यहां जो समझने वाली बात है वह यह है कि किसी भी नगर निगम को सुचारू रूप से चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है और हाउस टैक्स से होने वाली आय ही किसी भी नगर निगम के लिए सबसे अधिक राजस्व इकठ्ठा करती है. अब केजरीवाल जी नगर निगम को होने वाली आय के मुख्य स्रोत को ही बंद करना चाहते हैं- वह भी यह बताये बिना कि अगर यह आय नगर निगम को नहीं होगी तो नगर निगम चलेगा कैसे ? अभी जब हाउस टैक्स की वसूली जनता से की जा रही है, उसके बाबजूद नगर निगम राजस्व की कमी से इस हद तक जूझ रहे है कि दिल्ली में सफाई कर्मचारी कई बार सिर्फ इसी लिए हड़ताल पर जा चुके है कि उन्हें उनका वेतन नहीं मिल पा रहा था. अब जरा कल्पना कीजिये कि अगर हाउस टैक्स से होने वाली आय को भी बंद कर दिया गया तो क्या नगर निगम सुचारू रूप से चल पायेगा?
अपने चुनावी फायदे के लिए जनता को बार बार बेबकूफ बनाने में माहिर केजरीवाल इस बार कामयाब होंगे या नहीं, यह तो चुनाव नतीजों के आने की बाद ही मालूम होगा.

Thursday, March 23, 2017

मृत्युशैया पर आखिरी साँसें गिनता "सेकुलरिज्म" !!!

हाल ही मेंराज्यों के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के अभूतपूर्व प्रदर्शन से सभी चुनावी विश्लेषक और मीडिया में बैठे "वरिष्ठ पत्रकार" स्तब्ध  हैं. सभी तरह के पूर्वानुमानों को धता बताते हुए भाजपा नेमें सेराज्यों में  विजय तो प्राप्त की ही है, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में प्रचंड बहुमत से ४०३ में से ३२५ सीटें जीतकर सभी को सकते में दाल दिया है. उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों से सबसे बड़ा धक्का उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ( छद्म धर्मनिरपेक्ष) ताकतों को लगा है, जो आज तक देश की जनता को जाति-पाति और धर्म-संप्रदाय के नाम पर बांटकर देखा करते थे. इन लोगों का चुनावी आकलन कभी भी "मुस्लिम-दलित" या फिर "अल्पसंख्यक-पिछड़ा वर्ग" के गठजोड़ के आगे  नहीं बढ़ सका.

इसघोर साम्प्रदायिकता और जाति-पाति की राजनीति” को गैर-भाजपाई राजनीतिक दल , मीडिया में बैठे उनके चाटुकार और कुछ स्व-घोषित बुद्धिजीवी लोग "धर्मनिरपेक्षिता" या "सेक्युलरिज्म" का नाम देते रहे. देश की जनता इन लोगों के षड्यंत्र से अनजान थी और जाति -पाति के जहर से युक्त  इसघोर साम्प्रदायिकता” को ही "सेक्युलरिज्म" समझती रही और पिछले ६०-७० सालों से इन गैर भाजपाई राजनीतिक दलों की "सेक्युलर" सरकारें इसी तरह बनती रहीं और लोगों को छलती रहीं. छद्म धर्मनिरपेक्षिता के चलते यह लोग बिहार में भी सत्ता हथियाने में कामयाब हो गए - बिहार के लोग जब तक अपनीभयंकर गलती” को समझ पाते, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वे लोग बिहार में "जंगल राज " की वापसी के लिए खुद अपने आप को जिम्मेदार ठहराने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते थे. लेकिन देश के अन्य भागों में बैठे हुए लोगों ने और खासकर उत्तर प्रदेश की जनता ने बिहार की जनता की भयंकर गलती से सबक लेते हुए उस गलती को दुबारा नहीं दोहराया.

आगे बढ़ने से पहले आइए आपको यह बताएं कि यह "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" आखिर होती क्या है ? कायदे से देखा जाए तो धर्मनिरपेक्षिता का सीधा सादा मतलब उस व्यवस्था से है जिसमे बिना किसी भेदभाव के सभी जाति और धर्म-संप्रदाय के लोगों के साथ समानता का व्यवहार किया जाए. दुर्भाग्य से देश आजाद होने के बाद से ही उस समय के राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीतिक जड़ें मजबूत करने के लिए, चुपचाप इस "धर्मनिरपेक्षिता" का स्वरुप बिगाड़कर उसे "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" का रूप दे दिया और उसी के सहारे लगभग ६०-७० सालों तक अपनी सरकारें चलाते रहे. देश में भारतीय जनता पार्टी एकमात्र राजनीतिक दल है जिसने शुरू से ही अपनी धर्मनिरपेक्षिता की नीति सिर्फ बनाई हुयी है, बल्कि उस पर मुस्तैदी से अमल भी कर रहा है.पी एम् मोदी ने "सबका साथ-सबका विकास" का जो नारा दिया है, उससे भी भाजपा की इसी नीति की पुष्टि होती है.

क्योंकि देश में सिर्फ भाजपा ही एकमात्र "धर्मनिरपेक्ष" राजनीतिक पार्टी थी, इसलिए उसके बारे में ६०-७० सालों से लगातार यह दुष्प्रचार किया जाता रहा कि भाजपा तो -"सांप्रदायिक" पार्टी है और जिस "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" को बाकी के राजनीतिक दल अपनाये हुए हैं, वही असली मायनों में "धर्मनिरपेक्षिता" है. इस दुष्प्रचार में मीडिया और बुद्धिजीवी लोग सभी जोर शोर से लगे हुए थे और अभी भी लगे हुए है. वह तो भला हो सोशल मीडिया और उसके बदौलत बढ़ती हुयी जागरूकता का, जिसके चलते देश की जनता "सेक्युलरिज्म" के खूबसूरत डिब्बे में पैक की गयी इस "घोर साम्प्रदायिकता" को २०१७ के चुनावों से पहले समझने में कामयाब हुयी और उसने धर्मनिरपेक्षिता का ढोंग करने वालों को इन चुनावों में पूरी तरह नकार दिया.

उत्तर प्रदेश में  मायावती, अखिलेश और राहुल गाँधी जिस तरह से  "मुस्लिम-दलित" समीकरण के सहारे सत्ता हथियाने के सपने देख रहे थे, राज्य की जनता ने इन लोगों को निर्णायक ढंग से लताड़ कर भगा दिया है. जनता ने यह बता दिया है कि इस देश में सिर्फ मुस्लिम-दलित ही नहीं, अन्य वर्गों और जाति-सम्प्रदाय के लोग भी रहते हैं और उन सभी के साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए. इस सन्दर्भ में पूर्व प्रधान मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मनमोहन सिंह के उस बयान का जिक्र करना भी जरूरी हो जाता है, जो उन्होंने ने सन २००६ में  नेशनल डेवलपमेंट कौंसिल की ५२ वीं सभा को संबोधित करते हुए दिया था. वह विवादित बयान इस प्रकार है -"अल्पसंख्यकों,खासकर मुस्लिमों का, देश के संशाधनों पर पहला हक़ है." देश की जनता खुद यह फैसला करे कि यह बयान कितना "धर्मनिरपेक्ष" है. हैरानी की बात यह है कि किसी मीडिया हाउस, अखबार, टी वी चैनल या किसी बुद्धिजीवी ने इस बयान की हल्की सी भी आलोचना नहीं की.  अब आप जरा कल्पना कीजिये कि अगर यही बयान इसी मौके पर पी एम् मोदी ने कुछ इस तरह से दिया होता कि -" बहुसंख्यकों, खासकर हिंदुओं का, देश के संशाधनों पर पहला हक़ है.", तो समूचा विपक्ष, उसका चाटुकार मीडिया और  अवार्ड लिए हुए बुद्धिजीवी सड़कों पर लोट लोट कर तब तक धरना प्रदर्शन करते रहते, जब तक कि मोदी जी से वे लोग इस्तीफ़ा नहीं ले लेते.


इस सारी चर्चा का निष्कर्ष यही है कि लोग पिछले ७० सालों में सिर्फ पढ़े लिखे हैं, पहले से अधिक समझदार और जागरूक भी हुए हैं. तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों, उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया और बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर लोगों ने भरोसा करना अब बंद कर दिया है और सभी लोग खुद इस बात का विश्लेषण कर पा रहे हैं कि "सबका साथ -सबका विकास" के नारे में ही असली धर्मनिरपेक्षिता निहित है. जिस नकली धर्मनिरपेक्षिता के ढोंग के सहारे सभी गैर-भाजपाई पार्टियां पिछले ७० सालों से  जनता को लूट रही थी, उन सबकी "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" को जनता ने इन चुनावों में पूरी तरह अस्वीकार कर दिया है. अगर यह कहा जाए कि  "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" २०१७ आते आते अपनी मृत्यु शैया पर गयी है और अंतिम साँसें गिन रही है, तो उसे अतिश्योक्ति नहीं समझना चाहिए.

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