देशद्रोहियों का अंतिम ठिकाना या तो जेल की काल कोठरी होनी चाहिये या फिर फांसी का तख्ता. लेकिन ऐसा नही है. पिछले 60 सालों मे "सेकुलरिज्म" की खूबसूरत पैकिंग मे जिस तरह से "आतंकवाद और देशद्रोह" को बेचा जा रहा था- उसके चलते जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) जैसे देश मे ऐसे अनेक संगठन/संस्थान मिल जायेंगे जिनमे पढ़ाई लिखाई तो भले ही ना हो, आतंकवादियों और देशद्रोहियों की शरण- स्थली जरूर बने हुये हैं.
अभी हाल ही मे इस तथाकथित यूनिवर्सिटी के अंदर मौजूद देशद्रोहियों ने संसद पर हमला करने वाले देशद्रोही आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु के सम्मान मे एक कार्यक्रम आयोजित किया-देश मे कुछ विपक्षी राजनीतिक दल जो पिछले 60 सालों से देशद्रोहियों और आतंकवादियों का भरण-पोषण करते आये थे, खुलकर इन देशद्रोहियों के समर्थन मे आकर खड़े हो गये क्योंकि 60 सालों से इनकी राजनीति इन्ही देशद्रोहियों के फेंके गये टुकड़ों पर चल रही थी. पिछले ही दिनो हैदराबाद की एक तथाकथित यूनिवर्सिटी के देशद्रोही ने भी अपने अपराध बोध से ग्रस्त होकर जब खुदकुशी कर ली थी, उस समय भी यही देशद्रोही राजनीतिक दल और उनके नेता अपनी गुस्से का इज़हार करने के लिये ना सिर्फ उस "देशद्रोही" को "दलित छात्र" बताकर मौजूदा सरकार को घेरने की कोशिश मे लगे रहे, बल्कि उसके लिये भूख हड़ताल की नौटंकी तक करने के लिये भी मजबूर हो गये. उस तथाकथित छात्र के घरवाले हालांकि इन राजनेताओं से यह फरियाद करते रहे कि हम लोग दलित नही हैं, लेकिन वोटों के भूखे इन विपक्षी नेताओं के आगे उनकी एक ना चली-मीडिया मे बैठे इनके खानदानी नौकर आज भी उस देशद्रोही को "दलित छात्र" लिखकर ही अपनी खानदानी नौकरी को पक्की किये जा रहे हैं.
सवाल यह है कि JNU जैसे देशद्रोही संगठन बिना सरकारी संरक्षण के तो चल नही सकते-पिछले 60 सालों मे जो हो रहा था, उसके बारे मे कुछ भी और लिखना सूरज को दिया दिखाने जैसा ही है. जो लोग पिछले 60 सालों से सत्ता के केन्द्र मे थे, और जिनकी सर परस्ती मे JNU जैसी देशद्रोही संस्थाओं को "यूनिवर्सिटी" का दर्ज़ा दे दिया गया, वे ही लोग अब विपक्ष मे हैं और इस बात से खासे तिलमिलाये हुये हैं कि देर सवेर उनकी देशद्रोही गतिविधियों पर अब लगाम लगनी लगभग तय है. यूनिवर्सिटी - प्रशासन और वहां पढ़ाने वाले अध्यापकों ने अगर इन देशद्रोही गतिविधियों का समय रहते विरोध किया होता तो आज हालात कुछ बेहतर् हो सकते थे लेकिन लगता यही है कि जानबूझकर पिछली सरकारों ने ऐसे लोगों की भरती की थी, जो चुपचाप रहकर देशद्रोह की इस खेती की सिंचाई करते रहे और समय समय पर हमारे नेता "सेकुलरिज्म" की आड मे उस देशद्रोह की फसल को काट काट कर सत्ता का सुख भोगते रहें.
जैसे गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाते हैं, उसी तर्ज़ पर, कुछ शरीफ और देशभक्त छात्र भी इस तरह के शिक्षण संस्थानों मे गलती से चले जाते हैं और जब वे लोग स्वभाविक रूप से इन देशद्रोही गतिविधियों का विरोध करते हैं तो यह देशद्रोही (जो मार धाड़ मे पारंगत होते हैं), उनकी जमकर खबर लेते हैं. हैदराबाद के खुदकुशी करने वाले देशद्रोही ने भी कुछ इसी तरह का काम किया था. सवाल यही है कि अगर देश के अंदर ही ऐसे संगठन और संस्थान मौजूद हैं जिनमे आतंकवादियों और देशद्रोहियों को महिमा मंडित करने का काम सरकारी सर परस्ती और सरकारी खर्चे पर चल रहा है तो हम लोग-आतंकवाद के लिये पाकिस्तान जैसी दुश्मन ताकतों को कब तक दोष देते रहेंगे. जाहिर तौर पर यह देशद्रोही और विपक्षी राजनेताओं के चोले मे घूम रहे इनके आका पाकिस्तान मे बैठे आतंकवादियों से कही ज्यादा खतरनाक हैं.
Published on 11/2/2016
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